Vinita gupta

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वृक्षों की व्यथा

वृक्षों की व्यथा
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अरे! अरे! मत काटो मुझको,अंतर्मन की व्यथा सुनो।
 स्वार्थों की बलि मुझे चढ़ाकर इतने  निष्ठुर नहीं बनो।
सघन बादलों से अमृत जल, बूंदें बन जब बरसेगा,
सजनी के उर उठे हिलोरें, सजना को तब तरसेगा,
हम ना होंगे तो फिर कैसे,,,,, आकर्षित होंगे मेघा,
हरे भरे रंगों के बिन , ,,,,z,,,,श्रृंगार करे कैसे वसुधा,
तृषित धरा ये तुम्हें पुकारे,क्रंदन इसका तनिक सुनो।
अरे!अरे! मत काटो मुझको,अंतर्मन की व्यथा सुनो।।

कलरव देगा नहीं सुनाई ,पशु भी देंगे नहीं दिखाई,
नहीं मिलेगा उनको आश्रय,होगा  कितना दुखदाई,
तप्त धरा का बदन फटेगा,दूर-दूर मरुस्थल होगा ,
सूखेंगे भंडार सभी जल,कहीं नहीं फिर जल होगा।
आर्तनाद करती धरती मां,पीड़ा उसकी मौन सुनो।
अरे!अरे! मत काटो मुझको,अंतर्मन की व्यथा सुनो।।

औषधियों पर आश्रित जीवन स्वस्थ नहीं रह पाओगे।
वन बिन धरती बहुत तपेगी,तनिक नहीं सह पाओगे।
प्राण वायु फिर नहीं मिलेगी ,,,तब कैसे जी पाओगे।
रोओगे तड़पोगे अपनी ,,,,,,,,,,करनी पर पछताओगे।
कल कल करती नदियां बहती,श्रापित करती तुम्हें सुनो। 
अरे!अरे! मत काटो मुझको अंतर्मन की व्यथा सुनो।।

विनीता गुप्ता स्वरचित मौलिक

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2 Comments

Gunjan Kamal

03-Jun-2024 04:44 PM

👏🏻👌🏻

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Varsha_Upadhyay

14-May-2024 12:36 AM

Nice

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